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भक्ति पर्वों को बचाने की मुहिम: फूहड़ गीतों पर लगे अंकुश, नवाचार से मिलेगी नई राह

अनूपपुर। बुद्धि और विवेक के देवता श्री गणेश की विदाई पर्व, जो श्रद्धा और संस्कृति का प्रतीक होना चाहिए, आज बदलते परिवेश का शिकार होता दिखाई दे रहा है। विसर्जन जुलूसों में जहाँ पहले पारंपरिक भजन, ढोल-ढमाकों की लोकधुन और भक्तिमय वातावरण छाया रहता था, वहीं अब डीजे की कर्कश आवाज़, फूहड़ गीतों और नशे में डूबे युवाओं का नजारा आम हो चला है। यह प्रवृत्ति न केवल धार्मिक आयोजन का स्वरूप बिगाड़ रही है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी गलत दिशा में ले जा रही है। डिवाइन वैदिक मिशन कोतमा के संस्थापक बलभद्र नाथ ओझा का कहना है— “गणेश विसर्जन हमारी संस्कृति और आस्था का उत्सव है। आज जिस तरह यह पर्व विकृत हो रहा है, वह दुखद है। अब परिवार और समाज को मिलकर बच्चों को सही दिशा दिखानी होगी।” पंडित तुलसीदास जी महाराज, पुजारी श्री सिंह वाहिनी मंदिर, गोविंदा कॉलोनी का कहना है— “भक्ति का मार्ग नशे और अश्लीलता से नहीं, बल्कि संयम और श्रद्धा से प्रशस्त होता है। विसर्जन के समय की अव्यवस्थित गतिविधियाँ हमारे धर्म का अपमान हैं। युवाओं को पारंपरिक गीतों और लोकधुनों की ओर लौटना होगा।” इसी क्रम में शंकर सेना के जिला अध्यक्ष राजेश सिंह ने धार्मिक आयोजनों पर अपनी बात रखते हुए कहा— “यदि समाज फूहड़पन से दूर रहकर भक्ति और मर्यादा के साथ पर्व मनाएगा तो यही आने वाली पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ी सीख होगी।” हनुमान मंदिर भालूमाडा के पुजारी हरि नारायण शास्त्री का कहना है— “धर्म का सार सदाचार और भक्ति में है। अश्लीलता और नशा किसी भी स्थिति में धार्मिक आयोजनों का हिस्सा नहीं होना चाहिए।” वहीं परशुराम बोर्ड के जिला प्रभारी भगवान दास मिश्रा ने कहा— “त्योहार समाज को जोड़ने का अवसर होते हैं, इन्हें भटकाव का शिकार नहीं बनने देना चाहिए। समितियों को चाहिए कि वे स्वयं आगे आकर अनुशासित व सुसंस्कृत माहौल तैयार करें।” अब जबकि नवरात्रि पर्व समीप है, समाज, समितियों और प्रशासन को विशेष पहल करनी चाहिए। नगर प्रशासन एवं आयोजन समितियाँ आपस में बैठक कर तय करें कि विसर्जन जुलूस मर्यादित एवं सुसंस्कृत वातावरण में ही निकले। साथ ही यह भी प्रस्ताव रखा जाए कि जिन समितियों द्वारा पारंपरिक वेशभूषा, लोकधुन और सुसंस्कृत झांकियों के साथ विसर्जन जुलूस निकाले जाएंगे, उन्हें प्रशासन की ओर से पुरस्कार एवं सम्मान दिया जाए। इस प्रकार का नवाचार आने वाली पीढ़ी के लिए न केवल एक सकारात्मक संदेश होगा, बल्कि समाज को लंबे समय से घेर रहे इस फूहड़पन से भी मुक्ति दिलाने में सहायक बनेगा। त्योहारों का मूल स्वरूप तभी सुरक्षित रहेगा, जब श्रद्धा और संस्कृति के साथ उत्सव मनाया जाएगा।

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